संजय कोठियाल : अभी पिछले दिनों दिल्ली सरकार के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के हवाले से एक खबर अखबारों में पढ़ने को मिली कि दिल्ली सरकार शीघ्र ही दिल्ली में गढ़वाली और कुमाउंनी एकेडमी की स्थापना करने जा रही है। इस एकेडमी के पदेन अध्यक्ष तो दिल्ली के मुख्यमंत्री होंगे पर इसका सम्पूर्ण कामकाज सम्भालने की जिम्मेदारी बतौर उपाध्यक्ष हीरा सिंह राणा को सौंपी गई है जो कुमाऊँ के प्रसिद्ध लोक गायक हैं। हीरा सिंह राणा को बधाई देते हुए उनकी कई तस्वीरें भी पिछले दिनों सोशल मीडिया पर दिखाई देती रही।
इस खबर को लेकर सोशल मीडिया पर कई किस्म के किन्तु—परन्तु भी पढ़ने को मिले जिनमें सबसे अहम् दिल्ली में निवास कर रहे लगभग 15 लाख पहाड़ी मतदाताओं का ध्यान आम आदमी पार्टी की ओर केन्द्रित करना है जिसका सीधा लाभ अरविन्द केजरीवाल आने वाले विधानसभा चुनाव में उठा सकें। निश्चित तौर पर दिल्ली में रह रहे पर्वतीय मतदाताओं पर इस खबर का सकारात्मक असर भी देखने को मिला जिन्होंने दिल्ली सरकार की प्रशंसा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, और वहाँ के विभिन्न पर्वतीय संगठनों ने इसके लिए मनीष सिसोसिया और दिल्ली सरकार को बधाई भी दी।
दिल्ली सरकार ने फिलहाल अभी भले ही इस एकेडमी को खोलने की घोषणा भर की है, किन्तु 19 वर्ष पूरे कर चुके अपने उत्तराखण्ड राज्य की अब तक की सरकारें तो यह पहल भी नहीं कर सकी हैं। इसके उलट त्रिवेन्द्र सरकार के मंत्री प्रकाश पन्त (जो अब नहीं हैं) ने तो उत्तराखण्ड में गढ़वाली—कुमाउंनी की बजाय पंजाबी और उर्दू एकेडमी खोलने की घोषणा वर्ष 2017 में एक कार्यक्रम के दौरान कर दी थी। हमने इसी कॉलम में सरकार और उनके मंत्री प्रकाश पंत की तब भी तीखी आलोचना की थी कि उत्तराखण्ड की भाषाओं के विपरीत वह पंजाबी और उर्दू एकेडमी की स्थापना आखिर क्यों करना चाहते हैं?
उत्तराखण्ड राज्य के गठन के पीछे यहाँ की भाषा, संस्कृति और साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की मंशा भी निहित थी और यह कितने आश्चर्य और बेशर्मी की बात है कि 19 सालों का इतना लम्बा समय बीत जाने के बाद भी अभी तक इस दिशा में कोई पहल नहीं हो सकी है। ले—देकर यहाँ एक संस्कृति निदेशालय तो जरूर है पर वह सांस्कृतिक आयोजन और उससे जुड़े कार्य ही अपनी सीमाओं के अन्तर्गत संचालित कर पाता है।
गढ़वाली और कुमाउंनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज करने के लिए भी अभी तक की सरकारों ने कोई गम्भीर प्रयास नहीं किए हैं। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में तब गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज
ने इसकी जोरदार पैरवी की थी जिसके चलते तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने सतपाल महाराज के गैर सरकारी विधेयक पर ट्टमहापात्र कमेटी' का गठन भी किया था जिसने अपनी रिपोर्ट तो अध्यक्ष महोदया और सदन को सौंपी थी, पर उस रिपोर्ट में क्या था, यह इसलिए मालूम नहीं पड़ा क्योंकि उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया था। बाद में मोदी सरकार आने के बाद वह रिपोर्ट संसद की किस आलमारी में धूल खा रही है, यह भी किसी को मालूम नहीं है। इसी दौर में साहित्य अकादमी दिल्ली ने गढ़वाली—कुमाउंनी को लेकर पौड़ी में एक वर्कशॉप भी आयोजित की थी, जिससे इस दिशा में केन्द्र सरकार पर एक दबाव भी बना था, पर वो आशा भी समय के साथ—साथ अपना दम तोड़ गई।
राज्य बनने के बाद भाषा को लेकर यहाँ कई किस्म के तमाशे भी हुए हैं। कुछ वर्षों पहले शायद किसी एक मल्होत्रा जी ने उत्तराखण्ड की लिपि भी इजाद की थी और जब अजीज कुरैशी इस राज्य के राज्यपाल थे तो उन्होंने एक नया फरमान जारी किया था कि गढ़वाली और कुमाउंनी को मिलाकर एक नई भाषा बनाई जाए जो पूरे उत्तराखण्ड की एक भाषा बन सके। इसके लिए बाकायदा तब कुमाऊँ विश्व विघालय के कुलपति धामी जी को इसका जिम्मा भी सौंपा गया था कि वह नई भाषा बनाने के लिए युद्ध स्तर पर काम करें। भाषा न हुई चूँ—चूँ का मुरब्बा हो गया कि आपने कहा और वह बन गई। अब इन्हें कौन और कैसे समझाए कि यह सैकड़ों वर्षों के अनवरत साहित्य सृजन और लोक की सवीकार्यता के बिना कैसे सम्भव हो सकता है।
बहरहाल, उत्तराखण्ड सरकार में यदि अब भी कुछ शर्म बची है तो उसे अपनी डबल इंजन की सरकार के चलते इस दिशा में पहल करनी चाहिए। गढ़वाली और कुमाउंनी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए उत्तराखण्ड के पाँचों सांसदों सहित राज्य सभा के सांसदों को दबाव बनाना चाहिए और बिना किसी औपचारिकता के उत्तराखण्ड में गढ़वाली और कुमाउंनी एकेडमी की आधारशिला रखकर इस पर कार्य आरम्भ कर देना चाहिए। आप सुन रहे हैं न त्रिवेन्द्र रावत जी! स
उत्तराखण्ड के बजाय दिल्ली सरकार बना रही है गढ़वाली—कुमाउंनी एकेडमी